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Thursday, 10 July 2008

न्यायलय को जातीय राजनीति में न घसीटें

जातीय आरोप-प्रत्यारोप से न्यायलय भी नहीं बच पाई । राजनीति और प्रशासनिक विभाग में जातीय आरोप-प्रत्यारोप का मामला बहुत सामान्य है। लेकिन न्यायलय जिसके प्रति देश की जनता की आस्था बनी हुई है यदि उसे चोट पहुंचता है तो यह देश के लिये अच्छा नहीं होगा।

इसलिये सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई के अधिवक्ता रोहिन एन पांडया और पंकज कोटेचा के प्रति कड़ी नाराजगी व्यक्त की है। वकील पांडया और वकील कोटेचा ने एक जनहित याचिका दायर कर बॉम्बे हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीश के खिलाफ आरोप लगाय है कि मुख्य न्यायधीश मारवाड़ी हैं इसलिये वे मुंबई और अन्य स्थानों पर मारवाड़ी समाज से जुड़े न्यायधीशों की नियुक्ति कर रहे हैं। और किसी खास समुदाय के तरफदारी के पीछे हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार का दिमाग है जो कि मारवाड़ी है।

इस पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश जे बालाकृष्ण की अध्यक्षता वाली पीठ ने महाराष्ट्र सरकार को नोटिस जारी कर अधिवक्ता के खिलाफ कार्रवाई करने के लिये जवाब मांगा है। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा है कि अधिवक्ता के खिलाफ क्यों नहीं कार्रवाई की जानी चाहिये। सालिसिटर जनरल ने कहा कि यह जनहित याचिक कंलकपूर्ण है। यह वक्त है न्याय पालिका को बचाने का।

Wednesday, 6 February 2008

सु्प्रीम कोर्ट के जस्टिस को इतनी छुट्टियां क्यों ?

हजारों केस सुप्रीम कोर्ट में फैसले के इंतजार में पड़े हुये हैं। उनमें कई केस ऐसे हैं जिनमें से कुछ को सजा देनी है। कुछ निर्दोष को रिहा करना है। संवैधानिक मुद्दे से जुडे बातों पर सुनवाई करनी है। इसके अलावा और भी कई तरह के मामले है। कहा जाता है कि जजों की कमी की वजह से मामले को निपाटने में देरी हो रही है। इस तर्क को माना जा सकता है कि देश की जनसंख्या, अपराध की संख्या और पीआईएल की बढती संख्या को देखते हुये सही लगता है लेकिन इसके अलावा एक वजह यह भी लगता है कि हमारे सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायधीश थोड़ा ज्यादा ही आराम फरमाते हैं। वे दिन में कितने घंटे काम करते हैं इसका लेखा जोख तो नहीं है लेकिन वे साल भर में आधे दिन भी काम नहीं करते हैं। साल के 365 दिनों में सिर्फ 173 दिन हीं काम होता है और बचे हुये 192 दिन छुट्टियां मनाते हैं। 192 दिनों में 104 दिन शनिवार और रविवार के साप्ताहिक छुट्टियां हैं। और दो दिन कम लगभग तीन महीने (88 दिन) समर वेकशन के नाम पर छुट्टियां गुजारते हैं। आखिर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस महोदय को इतनी छुट्टियां क्यों? मैं तो जस्टिस महोदय से यही आग्रह करुंगा कि जैसे कई मह्त्वपूर्ण मामले में सरकारी नजरअंदाज के बावजूद जस्टिस महोदय स्वंय पहल कर केस को आगे बढाते और दोषियों को सजा सुना कर शानदार काम करते हैं उसी प्रकार उन्हें स्वंय पहल करते हुये अपनी छुट्टियां कम करनी चाहिये।

Tuesday, 11 December 2007

न्यायाधीशों को सरकार चलाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए - सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने 10 दिसंबर को कहा कि न्यायपालिका को अपनी सीमा नहीं लाँघनी चाहिए और न्यायाधीशों को सरकार चलाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और न हीं राजाओं की तरह व्यवहार करनी चाहिये। न्यायमूर्ति ए के माथुर और न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की पीठ ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के एक फैसले को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की। फैसले में हरियाणा सरकार को ट्रैक्टर ड्राईवर के पद सृजित करके प्रतिवादी चंद्रहास और अन्य को नियमित करने को कहा गया था। उन्होंने कहा है कि न्यायाधीशों को अपनी सीमाएँ समझनी चाहिए और सरकार चलाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को विनम्रता से काम लेना चाहिए। दोनो न्यायधीशों नेन्यायमूर्ति माथुर और न्यायधीशों ने नीतिगत मामलों में भी न्यायपालिका के हस्तक्षेप की आलोचना की और कहा कि अदालतों ने हाल में कार्यपालिका और नीति संबंधी मामलों में भी अगर साफ-साफ नहीं तो जाहिरा तौर पर ऐसा ही किया है। जबकि संविधान के तहत विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकारों का स्पष्ट विभाजन है।न्यायालय ने कहा कि अंतरिम आदेश 'उत्तर प्रदेश में 1998 के जगदंबिका पाल मामले और 2005 में झारखंड के मामले में' संविधान के तहत शक्ति के विभाजन से विचलन का जीता-जागता उदाहरण है।पीठ ने कहा अगर कानून है तो न्यायाधीश उसे लागू करने का आदेश दे सकते हैं। लेकिन वे कानून नहीं बना सकते और न ही ऐसा करने का निर्देश दे सकते हैं। शीर्ष अदालत ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के फैसले को खारिज करते हुए 22 पृष्ठ के अपने फैसले में यह बात कही।बहरहाल पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एएस आनंद ने न्यायालय की टिप्पणी पर अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि न्यायिक अनुशासन के तहत बड़ी पीठ के आदेश छोटी पीठ पर लागू होते हैं। उन्होंने कहा कि यह जरूरी है कि न्यायिक अनुशासन का हर कोई पालन करे। संवैधानिक विशेषज्ञों ने भी कहा है कि दो सदस्यीय पीठ बड़ी पीठ के आदेश पर टिप्पणी नहीं कर सकती। बड़ी पीठ के आदेश छोटी पीठ के लिए बाध्यकारी हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि उच्चतम न्यायालय ने स्वयं ही यह व्यवस्था दी थी कि अगर छोटी पीठ बड़ी पीठ के आदेश से इत्तफाक नहीं रखती है तो उन्हें मामले को बड़ी पीठ के पास भेज देना चाहिए। फैसले में न्यायमूर्ति आनंद के हाल की उस टिप्पणी का भी जिक्र किया गया जिसमें उन्होंने कहा था कि अदालत उस अधिकार को उत्पन्न नहीं कर सकती है जो मौजूद ही नहीं है और न ही ऐसे आदेश दे सकती है जिसे लागू ही नहीं किया जा सकता या वह अन्य कानून या फिर तय कानून सिद्धांतों का उल्लंघन करता हो।

Sunday, 28 October 2007

कम उम्र की लड़की की मर्जी से सेक्स करना बलात्कार माना जायेगा

लड़कियों की रक्षा के लिये ठोस कदम उठाते हुये, देश के उच्चतम न्यायलय ने कहा है कि 16 साल से कम उम्र की लड़की के साथ उसकी मर्जी से भी सेक्स करना बलात्कार की श्रेणी में आएगा। यदि आप जोर जबरदस्ती के अलावा किसी ऐसी लड़की से प्यार करते हैं और उसकी उम्र 16 साल से कम है और उसके साथ सेक्स करते हैं, भले हीं उसमें लड़की की भी मर्जी हो तो भी आपको बलात्कार के मामले में सजा काटना होगा। इसके अलावा न्यायलय ने एक व्यवस्था और दी है कि किसी व्यक्ति को वेश्यावृत्ति में धकेलने का दोषी तभी माना जाएगा जब वह खुद शारीरिक संबंध न बनाकर लड़की को किसी दूसरे व्यक्ति से शारीरिक संबंध बनाने को मजबूर करता है। और यह मामला आईपीसी की धारा 366 ए के तहत आयेगा। यह मामला जुडा है केरल से जहां एक आरोपी को नाबालिग लड़की से बलात्कार के आरोप में केरल के सेशन कोर्ट ने 3 साल की सजा सुनाई थी।उल्लेखनीय है कि वह लड़की अपनी मर्जी से आरोपी लड़के के साथ फरार हुई थी। लेकिन वहां की निचली अदालत ने बलात्कार के साथ ही उसे वेश्यावृत्ति में धकेलने का दोषी भी पाया था। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने उसे सिर्फ बलात्कार का दोषी पाया। लड़की उम्र 16 साल से कम थी।

Sunday, 14 October 2007

अदालतें अशोभनीय टिप्पणियां न करें– सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत से कहा है कि वे गवाहों या अन्य लोगों के खिलाफ अशोभनीय टिप्पणी न करें। यदि अदालत को यह लगे कि गवाह या अन्य लोगों का व्यावहार उचित नहीं है फिर भी अदालत अशोभनीय टिप्पणी न करे। न्यायमूर्ति सी के ठक्कर और सतशिवम की पीठ ने कहा कि न्यायिक टिप्पणी सटीक, शालीन और उदार होना चाहिये। दहेज हत्या मामले में एक गवाह के संबंध में पंजाब की एक अदालत द्वारा की गई टिप्पणी के संदंर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया।

Sunday, 7 October 2007

सुप्रीम कोर्ट भी कुछ नहीं कर पाई

चाहे कोई व्यक्ति हो या संस्था यदि वो लक्षमण रेखा को पार करने कि कोशिश करता है तो उसका खामियजा देर सबेर भुगतना ही पड़ता है। सबसे ताज उदाहरण है सुप्रीम कोर्ट का। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि तमिलनाडु में बंद का आयोजन डीएमके नहीं कर सकती है। लेकिन बंद को भूख हड़ताल का नाम देकर डीएमके ने जबरदस्त बंद का आयोजन किया। राज्य में लगभग सारी गाड़ियां जहां की तहां की खड़ी थी। सारी दुकाने बंद थी। यह खबर मिलते ही सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये कहा कि यदि सुप्रीम कोर्ट की बात राज्य सरकार नहीं मानती है इसका मतलब वहां कानून व्यवस्था ठीक नहीं है ऐसे में वहां केन्द्र सरकार राष्ट्रपति शासन लागू कर सकती है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मिलाजुला कर सुप्रीम कोर्ट को हाथ पे हाथ रख कर बैठना पड़ा। देश ने देखा कि सुप्रीम कोर्ट भी यदि भावना में आकर या प्रशासनिक लहजे में कोई फैसला दे देती है तो जरुरी नहीं कि कार्यपालिका उसकी बात माने हीं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद तमिलनाडू बंद हुआ। राष्ट्रपति शासन लागू करने के मुद्दे पर केन्द्र सरकार के मंत्रियों ने सुप्रीम कोर्ट की सहाल को साफ ठुकरा दिया। इतना हीं नहीं वामपंथी दलों ने तो यहां तक कह दिया कि तमिलनाडु में बंदी या हड़ताल होगा या नहीं ये सब कुछ सुप्रीम कोर्ट के दायरे में आता ही नहीं है। यदि बंद को दौरान कोई तोड़ फोड़ होती तो एक बात समझ में आती। बातचीत में कई लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के प्रति आस्था जताते हुये कहा कि सुप्रीम कोर्ट हमेशा न्याय करती आई है लेकिन यहां चुक हो गई। लोग यह भी कह रहें कि गुजरात में लगातार महीनों तक दंगे होते रहे तो सुप्रीम कोर्ट ने उस समय राष्ट्रपति शासन की सलाह केन्द्र को क्यों नहीं दी। राज्य में चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करने का फैसला बहुत ही मुश्किल घड़ियों में लिया जाता है। यहां पर न्यापलिका और कार्यपालिका दोनों को ही एक दुसरे की भावनाओं का ख्याल रखना चाहिये । कार्यपालिका और विधायिका को बेवजह न्यायपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करनी चाहिये उसी प्रकार न्यायपालिका को भी विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये।

Friday, 21 September 2007

तबादले करवा सकते हैं जनप्रतिनिधि

सांसदों और विधायको से अब सरकारी कर्मचारियों को अच्छे संबंध बनाकर रखने होंगें क्यों कि विधायक या सांसद की सिफिरिश पर सरकारी कर्मचारियों का तबादला हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लोगों की शिकायतों को सामने लाना जनप्रतिनिधियों का कर्तव्य है और किसा कर्मचारी के खिलाफ कोई शिकायत है तो उसका तबादला राज्य सरकार के अधिकार में आता है। सुप्रीम कोर्ट ने मुजफ्फरनगर नगर पालिका परिषद के कार्यकारी अधिकारी मोहम्मद मसूद अहमद की अपील को खारिज करते हुए यह व्यवस्था दी।