Sunday, 7 October 2007

सुप्रीम कोर्ट भी कुछ नहीं कर पाई

चाहे कोई व्यक्ति हो या संस्था यदि वो लक्षमण रेखा को पार करने कि कोशिश करता है तो उसका खामियजा देर सबेर भुगतना ही पड़ता है। सबसे ताज उदाहरण है सुप्रीम कोर्ट का। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि तमिलनाडु में बंद का आयोजन डीएमके नहीं कर सकती है। लेकिन बंद को भूख हड़ताल का नाम देकर डीएमके ने जबरदस्त बंद का आयोजन किया। राज्य में लगभग सारी गाड़ियां जहां की तहां की खड़ी थी। सारी दुकाने बंद थी। यह खबर मिलते ही सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये कहा कि यदि सुप्रीम कोर्ट की बात राज्य सरकार नहीं मानती है इसका मतलब वहां कानून व्यवस्था ठीक नहीं है ऐसे में वहां केन्द्र सरकार राष्ट्रपति शासन लागू कर सकती है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मिलाजुला कर सुप्रीम कोर्ट को हाथ पे हाथ रख कर बैठना पड़ा। देश ने देखा कि सुप्रीम कोर्ट भी यदि भावना में आकर या प्रशासनिक लहजे में कोई फैसला दे देती है तो जरुरी नहीं कि कार्यपालिका उसकी बात माने हीं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद तमिलनाडू बंद हुआ। राष्ट्रपति शासन लागू करने के मुद्दे पर केन्द्र सरकार के मंत्रियों ने सुप्रीम कोर्ट की सहाल को साफ ठुकरा दिया। इतना हीं नहीं वामपंथी दलों ने तो यहां तक कह दिया कि तमिलनाडु में बंदी या हड़ताल होगा या नहीं ये सब कुछ सुप्रीम कोर्ट के दायरे में आता ही नहीं है। यदि बंद को दौरान कोई तोड़ फोड़ होती तो एक बात समझ में आती। बातचीत में कई लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के प्रति आस्था जताते हुये कहा कि सुप्रीम कोर्ट हमेशा न्याय करती आई है लेकिन यहां चुक हो गई। लोग यह भी कह रहें कि गुजरात में लगातार महीनों तक दंगे होते रहे तो सुप्रीम कोर्ट ने उस समय राष्ट्रपति शासन की सलाह केन्द्र को क्यों नहीं दी। राज्य में चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करने का फैसला बहुत ही मुश्किल घड़ियों में लिया जाता है। यहां पर न्यापलिका और कार्यपालिका दोनों को ही एक दुसरे की भावनाओं का ख्याल रखना चाहिये । कार्यपालिका और विधायिका को बेवजह न्यायपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करनी चाहिये उसी प्रकार न्यायपालिका को भी विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये।

1 comment:

Shiv said...

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के साथ ऐसा पहली बार हुआ, ऐसी बात नहीं है. कावेरी मामले में एस एम् कृष्ण साहब ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की धज्जियाँ 'जनता' का सहारा लेकर उडाई थीं. केन्द्र सरकार के नुमाईंदे और यहाँ तक कि लोक सभा के स्पीकर सुप्रीम को जब-तब धमकाते रहते हैं. उस दिन सुप्रीम कोर्ट के कमेंट को ब्रिन्दा करात ने फतवा करार दिया.

गुजरात सरकार के बारे में सुप्रीम कोर्ट के कमेंट को मीडिया जब-तब दिखाती रहती है, लेकिन इन पार्टियों के कारनामों के बारे सुप्रीम कोर्ट के कमेंट और फैसले को नजर्दाज कर दिया जाता है, वो भी धर्मनिरपेक्षता की आड़ में.