Tuesday 11 December, 2007

न्यायाधीशों को सरकार चलाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए - सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने 10 दिसंबर को कहा कि न्यायपालिका को अपनी सीमा नहीं लाँघनी चाहिए और न्यायाधीशों को सरकार चलाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और न हीं राजाओं की तरह व्यवहार करनी चाहिये। न्यायमूर्ति ए के माथुर और न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की पीठ ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के एक फैसले को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की। फैसले में हरियाणा सरकार को ट्रैक्टर ड्राईवर के पद सृजित करके प्रतिवादी चंद्रहास और अन्य को नियमित करने को कहा गया था। उन्होंने कहा है कि न्यायाधीशों को अपनी सीमाएँ समझनी चाहिए और सरकार चलाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को विनम्रता से काम लेना चाहिए। दोनो न्यायधीशों नेन्यायमूर्ति माथुर और न्यायधीशों ने नीतिगत मामलों में भी न्यायपालिका के हस्तक्षेप की आलोचना की और कहा कि अदालतों ने हाल में कार्यपालिका और नीति संबंधी मामलों में भी अगर साफ-साफ नहीं तो जाहिरा तौर पर ऐसा ही किया है। जबकि संविधान के तहत विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकारों का स्पष्ट विभाजन है।न्यायालय ने कहा कि अंतरिम आदेश 'उत्तर प्रदेश में 1998 के जगदंबिका पाल मामले और 2005 में झारखंड के मामले में' संविधान के तहत शक्ति के विभाजन से विचलन का जीता-जागता उदाहरण है।पीठ ने कहा अगर कानून है तो न्यायाधीश उसे लागू करने का आदेश दे सकते हैं। लेकिन वे कानून नहीं बना सकते और न ही ऐसा करने का निर्देश दे सकते हैं। शीर्ष अदालत ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के फैसले को खारिज करते हुए 22 पृष्ठ के अपने फैसले में यह बात कही।बहरहाल पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एएस आनंद ने न्यायालय की टिप्पणी पर अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि न्यायिक अनुशासन के तहत बड़ी पीठ के आदेश छोटी पीठ पर लागू होते हैं। उन्होंने कहा कि यह जरूरी है कि न्यायिक अनुशासन का हर कोई पालन करे। संवैधानिक विशेषज्ञों ने भी कहा है कि दो सदस्यीय पीठ बड़ी पीठ के आदेश पर टिप्पणी नहीं कर सकती। बड़ी पीठ के आदेश छोटी पीठ के लिए बाध्यकारी हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि उच्चतम न्यायालय ने स्वयं ही यह व्यवस्था दी थी कि अगर छोटी पीठ बड़ी पीठ के आदेश से इत्तफाक नहीं रखती है तो उन्हें मामले को बड़ी पीठ के पास भेज देना चाहिए। फैसले में न्यायमूर्ति आनंद के हाल की उस टिप्पणी का भी जिक्र किया गया जिसमें उन्होंने कहा था कि अदालत उस अधिकार को उत्पन्न नहीं कर सकती है जो मौजूद ही नहीं है और न ही ऐसे आदेश दे सकती है जिसे लागू ही नहीं किया जा सकता या वह अन्य कानून या फिर तय कानून सिद्धांतों का उल्लंघन करता हो।

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