Friday, 26 October 2007

कहीं ये टीवी पत्रकारिता का कलंक न बन जाये।

जीतेंद्र दीक्षित पत्रकारिता जगत में पिछले 12 साल से कार्यरत हैं। आजतक – तहलका ने जो स्टिंग ऑपरेशन में गुजरात के दंगो को दिखाया उससे वे सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि गुजरात दंगे का अर्ध सच ही दिखाया गया है। एक रिपोर्ट - इस हफ्ते के तहलका का तहलका खूब चर्चित हुआ। गुरूवार की शाम जब आज तक न्यूज चैनल ने गुजरात दंगों पर तहलका के साथ मिलकर अपना स्टिंग ऑपरेशन दिखाया तो हर कोई टीवी से चिपका दिखा। ये जानकर अच्छा लगा कि बडे दिनों बाद कोई हिंदी न्यूज चैनल राखी सावंत, नाग नागिन या अंधविश्वास से हटकर कोई गंभीर खबर दिखा रहा था। राजनेता, पत्रकार , व्यापारी हर कोई इस खुलासे को देखकर अचंभित था। गुजरात के दंगों का ये सच काफी घिनौना और डरावना था। एक हिंदुत्ववादी नेता बडी बहादुरी जताते हुए गर्भवती महिला की हत्या कबूल कर रहा था, दूसरा बूढे मुसलिम सांसद और उसकी पनाह में आये लोगों की हत्या को बहादुरी मान रहा था। तीसरे ने उगला कि किस तरह से पुलिस और मंत्री दंगाईयों का समर्थन कर रहे थे। जो भी सुनाई और दिखाई दे रहा था, उसने दहला कर रख दिया। मरने वालों के लिये कोई नहीं था, न पुलिस, न सरकार और न नेता। वे तस्वीरें लोकतंत्र का मजाक तो थीं हीं, इंसानियत का भी मखौल उडा रहीं थीं। जो भी दिखाया गया वो काफी शर्मनाक था।
इस स्टिंग ऑपरेशन को अंजाम देने वाले तहलका के पत्रकार आशीष खेतान मेरे अच्छे दोस्त हैं। जिन दिनों वे मुंबई मिरर के लिये मुंबई में काम करते थे तो हमारी अक्सर मुलाकात होती थी। मुंबई से दिल्ली जाने पर भी वे लगातार मेरे संपर्क में थे। इस ऑपरेशन को उन्होने जिस हिम्मत, सूझबूझ और रोचक तरीके से अंजाम दिया, मै उसकी दाद देता हूं। स्टिंग ऑपरेशन के दौरान कई तरह के जोखिम होते हैं, लेकिन खेतान ने इन जोखिमों की परवाह किये बिना ऑपरेशन कलंक को सफलतापूर्वक अंजाम दिया। मैं इस ऑपरेशन को टीवी पत्रकारिता की एक बडी उपलब्धि मानने वाला था, लेकिन थोडी गहराई से सोचने पर निष्कर्ष निकला कि ऐसा नहीं है।
ऑपरेशन कलंक को आज तक ने गुजरात के दंगों का सच के तौर पर प्रचारित किया, पर मैं इससे सहमत नहीं हूं। जो भी आज तक ने दिखाया वो अधूरा सच था और आधा सच कई बार झूठ से भी ज्यादा खतरनाक होता है। इस बात में मुझे शक की कोई गुजाईश नहीं लगती कि तहलका ने जिन लोगों के वीडियो पर बयान दिखाये उनमें किसी तरह की छेडखानी की गई होगी, या उन्हे तोड मरोड कर पेश किया गया होगा। तमाम बयानों को देखने के बाद ये निष्कर्ष भी गलत नहीं है कि नरेंद्र मोदी की गुजरात सरकार ने दंगाईयों को खुली छूट दे रखी थी और उन्हें बचाने की भी कोशिश की। मेरी शंका इससे अलग है। मेरा सवाल सिर्फ इतना है कि ऑपरेशन कलंक में सिर्फ ऐसे दंगाईयों को ही क्यों नंगा करने के लिये चुना गया जिन्होने मुसलिमों पर हमले किये, वे ही लोग क्यों निशाने पर थे जिन पर गोधरा नरसंहार के बाद हुए दंगों में शामिल होने का आरोप है। ऐसे लोगों को बिलकुल नंगा किया जाना चाहिये था। मानवाता के दुश्मन हैं ये...लेकिन तहलका वालों क्या आप उन लोगों के बारे में क्या कहेंगे जिन्होने गोधरा में रेल मुसाफिरों को जिंदा फूंक दिया। साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बा नंबर एस-6 में कुल 58 लोगों को जिंदा जला दिया गया था, जिनमें 15 महिलायें और 20 बच्चे भी थे। हिंदू दंगाईयों की तरह गोधरा की ट्रेन में आग लगाने वाले भी अपने बचाव में तरह-तरह के तर्क और कहानियां पेश कर रहे हैं। उनपर तहलका को शक क्यों नहीं हुआ। उनकी सच्चाई जानने की कोशिश क्यों नहीं हुई। ट्रेन में आग लगाने वालों से भी कैमरे के सामने उनका इकबाल-ए-जुर्म क्यों नहीं कराया गया।
मेरा तो ये मानना है कि गोधरा में नरसंहार का मामला किसी भी खोजी पत्रकार के लिये अपनी काबिलियत तो जांचने का अच्छा मौका देता है। इस मामले में कई ऐसे उलझे हुए सवाल हैं, जिनके जवाब ढूढे जाने बाकी हैं। गुजरात पुलिस की विशेष टीम ने इस नरसंहार को मुसलिम अपराधियों की एक सुनियोजित साजिश बताया था। रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव की ओर से गठित किये गये बैनर्जी पैनल के मुताबिक साबरमती एक्सप्रेस के डिबबे में आग लगाई ही नहीं गई, बल्कि ये तो एक दुर्घटना थी। गुजरात हाईकोर्ट ने बाद में पैनल की रिपोर्ट को नकारते हुए उसे गैरकानूनी और असंवैधानिक घोषित किया। कई और जांचे भी इस मामले में चल रहीं हैं, पर तहलका ने इस घटना के बजाय उसके बाद गुजरात में हुई प्रतिक्रिया को ही अपनी तहकीकात के दायरे में शामिल किया।
तहलका को शाबाशी तब दी जा सकती थी जब लो अपनी जांच के दायरे को बढाकर उसमें पूर्णता लाता, न केवल दंगों बल्कि दंगों का कारण बने गोधरा कांड के दोषियों को भी नंगाकर लोगों को बताता कि देखो इंसान दो अलग अलग धर्मों के बीच बंटकर किस तरह से हैवान बन गया था। ये बताता कि दंगाई चाहे हिंदू हो या मुसलमान उनके बीच नफरत और हैवानियत एक समान थी। ऐसा न करके तहलका ने आधा सच पेश किया है और उसके इस प्रयास को मैं सांप्रदायिकता के खिलाफ भरोसेमंद प्रयास नहीं मानता।
दूसरा सवाल जुडा है इस ऑपरेशन को दिखाये जाने के वक्त से। गुजरात में विधानसभा चुनावों के महीनेभर पहले इस ऑपरेशन को दिखाये जाने से ऑपरेशन की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठ रहे हैं। बीजेपी और नरेंद्र मोदी को ये कहकर अपना बचाव करने का मौका मिल गया है कि ये ऑपरेशन राजनीति से प्रेरित है और बीजेपी को गुजरात की सत्ता से हटाने की एक साजिश है। मैं न तो बीजेपी का समर्थक हूं और न ही आर एस एस, वी एच पी या बजरंग दल का। ऐसे तमाम संगठनों को मैं इंसानियत के दुश्मन और हिंदुत्व के नाम पर दुकान चलानो वालों की तरह देखता हूं, लेकिन इतना जरूर है कि जब तमाम एनजीओ, स्वयंभू समाजसेवी और मीडिया में हावी तथाकथित सेकुलर लोगों को एकतरफा अभियान चलाते देखता हूं तो बैचैनी होती है।
एक सवाल ये भी है कि एक ओर जब देश का माहौल दिन ब दिन बिगड रहा है तो इस तरह के संवेदनशील ऑपरेशन को दिखाया जाना कितना जायज है। गुजरात के गुनहगारों पर दुनियाभर की नजर है और उनके खिलाफ न्यायिक प्रक्रिया अभी चल ही रही है। न्यायपालिका पर से भरोसा अभी उठा नहीं है। गुजरात दंगों का ही बेस्ट बेकरी मामला इसकी मिसाल है। मामले की मुख्य चश्मदीद गवाह जाहिरा शेख के बार बार अपने बयान बदलने और तमाम नाटकीय घटनाक्रमों के बावजूद इस कांड के दोषियों को सजा मिली है। ऐसे में इस ऑपरेशन को दिखा कर क्या हासिल होगा ये साफ नहीं हो पा रहा। उलटे चिंता ये हो रही है कि कहीं इस ऑपरेशन के बहाने सांप्रदायिक तत्व फिर एक बार अपना उल्लू सीधा करने में न लग जायें। पता नहीं इस ऑपरेशन की सीडी की कितनी प्रतियां आतंकी संगठन खाडी देशों से फंड जमा करने के मकसद से बनाईं जायेंगीं, ट्रेनिंग कैंपों और कट्टरपंथियों के अड्डों पर मुसलिम युवाओं को भडकाने और दहशतगर्दी का रास्ता अख्तियार करने में इनका कितना इस्तेमाल होगा। हाल में देश के अलग अलग हिस्सों से पकडे आतंकियों के पास से गुजरात दंगों की खौफनाक तस्वीरों वाली कई सीडी बरामद हुईं हैं। ऑपरेशन कलंक की सामग्री तो उनसे भी ज्यादा विस्फोटक है। बेगुनाहों की जान लेने का इरादा रखने वाले न जाने कितने आतंकवादी और फिदायीन ऑपरेशन कलंक को देख कर अपने अमानवीय मकसदों को जायज मानेंगे।
मेरी चिंता यही है कि ऑपरेशन कलंक कहीं टीवी पत्रकारिता के लिये ही कलंक न बन जाये।

9 comments:

अनिल रघुराज said...

जीतेंद्र जी ने एकदम सही बात उठाई है। लेकिन क्रिया की प्रतिक्रिया खुद-ब-खुद होती है, वह प्रायोजत नहीं होती। जबकि ऑपरेशन कलंक ने साबित किया है कि यह 'प्रतिक्रिया' प्रायोजित थी। गोधरा कांड के असली गुनहगार सामने लाए जाने चाहिए, लेकिन गुजरात दंगों के गुनहगार सामने आ चुके हैं। उनकी सज़ा कौन मुकर्रर करेगा?

राजेश कुमार said...

जीतेन्द्र जी एक साथ कभी भी सारे पहलू सामने नहीं आ सकते। कड़ी से कड़ी जुड़ते जाते हैं और सच्चाई सामने आती जाती है। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ जो भी आरोप लगे हैं उसे लगाने वाले उन्ही के लोग हैं।राज्य का एक मुख्यमंत्री खुद दंगे करने और कत्लेआम करने की छुट देता है उसे कोई भी जायज नहीं ठहरा सकता।

Rajesh Tripathi said...

गंदी राजनीति का घिनौना सच, सच में देखने को मिला, मगर एकतरफा। सच में जिंतेद्र जी शायद आप भी उसी कमी को एहसास कर रहे हैं जो ऑपरेशन कलंक देखकर तमाम बुद्धिजीवी लोगों के दिलो में टीस बनकर उभरा....उम्मीद है कि तहलका की टीम दूसरे पक्ष के कलंकियों का भी चेहरा दिखाकर.......इस अधूरे मुद्दे की पूर्णाहुति करेंगी।

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

क्या यह भी एक तरह की राजनीति नहीं है कि जो कुछ किया गया उसे एक तरफ करते हुए हम कहें कि यह किया गया वह क्यों नहीं किया गया? गुजरात के नरसंहार की बात की जाए तो हम फौरन कहें कि गोधरा की बात क्यों नहीं की गई? लेकिन मित्र, यह सवाल पूछने से कोई अपराध खत्म तो नहीं हो जाता. इस बात को कैसे माफ किया जा सकता है कि एक मुख्यमंत्री और उसका पूरा तंत्र इस जघन्य अपराध में लिप्त था?

नारद संदेश said...

जीतेन्द्र जी का यह सवाल बिल्कुल सही है कि ऑपरेशन कलंक में सिर्फ ऐसे दंगाईयों को ही क्यों नंगा करने के लिये चुना गया जिन्होने मुसलिमों पर हमले किये, वे ही लोग क्यों निशाने पर थे जिन पर गोधरा नरसंहार के बाद हुए दंगों में शामिल होने का आरोप है। ऐसे लोगों को बिलकुल नंगा किया जाना चाहिये था। मानवाता के दुश्मन हैं ये...लेकिन तहलका वालों क्या आप उन लोगों के बारे में क्या कहेंगे जिन्होने गोधरा में रेल मुसाफिरों को जिंदा फूंक दिया। हिंदू दंगाईयों की तरह गोधरा की ट्रेन में आग लगाने वाले भी अपने बचाव में तरह-तरह के तर्क और कहानियां पेश कर रहे हैं। उनपर तहलका को शक क्यों नहीं हुआ। उनकी सच्चाई जानने की कोशिश क्यों नहीं हुई। ट्रेन में आग लगाने वालों से भी कैमरे के सामने उनका इकबाल-ए-जुर्म क्यों नहीं कराया गया।

Sanjeet Tripathi said...

बहुत सही, शानदार लिखा है आपने!!

Unknown said...

Jitendra has raised a very valid point here.. the most crucial thing is the time of the sting.. why now, when assembly poll is just a month away... this could have been an excellent work if it was shown either 6 months back or after the polls so that it could not be termed as politically influenced.

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

चलिए, कुछ देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि इस स्टिंग ऑपरेशन का वक़्त (गुजरात चुनाव के ऐन पहले) कुछ सन्देह पैदा करता है, या कि इस वक़्त यह ऑपरेशन उचित नहीं, तब भी, जो कुछ इस ऑपरेशन से उजागर हुआ है, क्या उसकी गम्भीरता और भयावहता कम हो जाती है? अगर तीन महीने पहले यह ऑपरेशन होता तो ठीक था और अब ठीक नहीं है, यह तो कोई बात नहीं हुई. जिस व्यक्ति ने इतना घृणित कार्य किया, उसे अगर चुनाव में भी उसकी सज़ा मिले तो इसमें क्या गलत है? दरअसल जब ऐसे सवाल (समय को लेकर)उठाये जाते हैं तो उनसे कहीं न कहीं धत्कर्म करने वाले के प्रति हमारी मुलायमियत (इसे पढें-समर्थन)अभिव्यक्त होती है.

बोधिसत्व said...

आपकी चिंता वाजिब है.....लेकिन मोदी सरकार के लिए फजीहत बनता ऑपरेशन दिख रहा है यह,,,